विविध >> बँटवारा नहीं बँटवारा नहींमहेश चंद्र शर्मा
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मैं बँटवारे के खिलाफ इसलिए हूँ कि बँटवारे को मैं एक अप्राकृतिक चीज समझता हूँ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मेरा अनुभव बताता है कि बँटवारा तरक्की की राह में भी रुकावट है। बँटवारा
हमेशा intolerance के जज्बे के तहत होता है। इसलिए बँटवारे के बाद बात
खत्म नहीं होती, बल्कि आपस का टकराव और लड़ाइयाँ शुरू हो जाती हैं। यही
भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ है। दोनों में दुश्मनियाँ खड़ी हो गयीं।
हमने यह भी देखा है कि कुछ देश ऐसे हैं जहाँ बँटवारा हुआ है, मगर कुछ दिनों के बाद उन्होंने बँटवारे की कड़वाहट चखी तो उनकी सोच बदली और वे फिर से आपस में मिलने की सोचने लगे। पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी आपस में फिर से मिल गये। दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया आपस में मिलने की बातचीत चला रहे हैं। यह एक शुभ लक्षण है।
हमने यह भी देखा है कि कुछ देश ऐसे हैं जहाँ बँटवारा हुआ है, मगर कुछ दिनों के बाद उन्होंने बँटवारे की कड़वाहट चखी तो उनकी सोच बदली और वे फिर से आपस में मिलने की सोचने लगे। पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी आपस में फिर से मिल गये। दक्षिण कोरिया और उत्तर कोरिया आपस में मिलने की बातचीत चला रहे हैं। यह एक शुभ लक्षण है।
दो शब्द
बँटवारे की सोच को मैं सौ फीसदी गलत मानता हूँ। बँटवारा न किसी समस्या का
समाधान है और न वह ‘ideological point of view’ से कोई कही
सोच है। मैं बँटवारे के उतना ही खिलाफ हूँ जितना कोई भी अन्य हो सकता है।
बँटवारे के खिलाफ मैं इसलिए नहीं हूँ कि भारत एक Divine Mother है और Divine Mother को बाँटना ऐसा ही है जैसे माँ के शरीर को काटकर टुकड़े करना। यह एक religious belief है। अगर कोई belief रखे तो वह रख सकता है; क्योंकि हमारे देश में आजादी है।
मैं बँटवारे के खिलाफ इसलिए हूँ कि बँटवारे को मैं एक अप्राकृतिक चीज समझता हूँ और इसी के साथ अमानवीय भी। इनसान एक सामाजिक प्राणी है। इनसान का हर काम मिल-जुलकर होता है। इन्सान की इसी जरूरत ने इस दुनिया को एक Global Village बना दिया है। हाँ, आदमी दूसरे से जुड़ा हुआ है। आपस में जुड़े बिना एक का भी नुकसान है और दूसरे का भी। इस चीज को ध्यान में रखते हुए मैं कहूँगा कि बटवारा एक anachronistic (जमाने के खिलाफ) है यानी जमाना तो यह कहता है कि सब लोग एक-दूसरे से जुड़ जाओ; क्योंकि इसी में सबकी तरक्की है।
मैंने भारत को सन् 1947 से पहले भी देखा और 1947 के बाद भी देख रहा हूँ। अपने निजी अनुभव से मैं यह जानता हूँ कि जब हमारे देश में बँटवारा नहीं हुआ था तो लोग एक-दूसरे से मुहब्बत, प्यार करते थे। लोग एक-दूसरे को अपना भाई-बहन समझते थे। मगर आज हर तरफ नफरत फैल गई है। लोगों में अपने पन का माहौल खत्म हो गया है। मैं समझता हूँ कि इनसानियत के लिए इससे ज्यादा बुरी कोई चीज नहीं कि लोग आपस में एक-दूसरे से नफरत करने लगें।
इसी के साथ मेरा अनुभव बताता है कि बँटवारा तरक्की की राह में भी रुकावट है। बँटवारा हमेशा intolerance के जज्बे के तहत होता है। इसलिए बँटवारे के बाद बात खत्म नहीं होती, बल्कि आपस का टकराव और लड़ाइयाँ शुरू हो जाती है। यही भारत और पाकिस्तान के बीच में हुआ है। दोनों में दुश्मनियाँ खड़ी हो गईं। दोनों के बीच में लड़ाई ठन गई। इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों अपने बजट का बहुत बड़ा हिस्सा लड़ाई पर खर्च करने लगे। यही वजह है कि दोनों मुल्क अभी 55 साल बाद भी विकसित देश न बन सके। हालाँकि इसी मुद्दत में कई देश विकसित देश बन गए, जैसे–जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर वगैरह।
हमने यह भी देखा है कि कुछ देश ऐसे हैं जहाँ बँटवारा नहीं हुआ, मगर कुछ दिनों के बाद उन्होंने बँटवारे की कड़वाहट चखी तो उनकी सोच बदली और वे फिर से आपस में मिलने की सोचने लगे। पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी आपस में मिलने की बातचीत चला रहे हैं। यह एक शुभ लक्षण है।
भारत में हमारे यहाँ जो बँटवारा हुआ उसकी कड़वाहट सब लोग चख चुके हैं। मैं समझता हूँ कि अब हमें तीन में से एक काम करना चाहिए। या तो ऐसा हो कि सन् 1947 से पहले देश के जो टुकड़े एक साथ मिलकर भारत देश कहे जाते थे वे सब फिर से मिलकर वैसा ही संयुक्त भारत देश बनाएँ।
और अगर ऐसा न हो सके तो फिर ऐसा होना चाहिए कि पूरे उपमहाद्वीप को एक Confederation की सूरत दे दी जाय। यानी अलग रहते हुए भी सब एक central system से जुड़ जाएँ, किसी तरह अमेरिका में 50 राज्य अलग रहकर भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
और अगर ऐसा न हो तो कम-से-कम यह तो जरूर होना चाहिए कि इस पूरे उपमहाद्वीप में वीजा व्यवस्था खत्म कर दी जाय, जिस तरह यूरोप और अरब के देशों में खत्म कर दी गई है। पूरे महाद्वीप में लोग आजादी के साथ आएँ–जाएँ, आपस में खूब व्यापार करें। एक जगह का नौजवान दूसरी जगह जाकर शिक्षा ले सके।
हम बँटवारे को सह नहीं सकते। हम बँटवारे को afford नहीं कर सकते। इसलिए हमें कोई-न-कोई रास्ता ऐसा निकालना है जिसमें पूरे उपमहाद्वीप में एक-दूसरे के बीच में सामान्य संबंध कायम हों। हमें चाहिए कि हम झगड़ों को खत्म करें। हम पीछे की तरफ न देखें। हम अतीत को भुलाएँ और भविष्य को सामने रखकर अपनी planning करें। इसी तरह हम अपने लिए विकसित देशों की सूची में उचित स्थान प्राप्त कर सकते हैं।
बँटवारे के खिलाफ मैं इसलिए नहीं हूँ कि भारत एक Divine Mother है और Divine Mother को बाँटना ऐसा ही है जैसे माँ के शरीर को काटकर टुकड़े करना। यह एक religious belief है। अगर कोई belief रखे तो वह रख सकता है; क्योंकि हमारे देश में आजादी है।
मैं बँटवारे के खिलाफ इसलिए हूँ कि बँटवारे को मैं एक अप्राकृतिक चीज समझता हूँ और इसी के साथ अमानवीय भी। इनसान एक सामाजिक प्राणी है। इनसान का हर काम मिल-जुलकर होता है। इन्सान की इसी जरूरत ने इस दुनिया को एक Global Village बना दिया है। हाँ, आदमी दूसरे से जुड़ा हुआ है। आपस में जुड़े बिना एक का भी नुकसान है और दूसरे का भी। इस चीज को ध्यान में रखते हुए मैं कहूँगा कि बटवारा एक anachronistic (जमाने के खिलाफ) है यानी जमाना तो यह कहता है कि सब लोग एक-दूसरे से जुड़ जाओ; क्योंकि इसी में सबकी तरक्की है।
मैंने भारत को सन् 1947 से पहले भी देखा और 1947 के बाद भी देख रहा हूँ। अपने निजी अनुभव से मैं यह जानता हूँ कि जब हमारे देश में बँटवारा नहीं हुआ था तो लोग एक-दूसरे से मुहब्बत, प्यार करते थे। लोग एक-दूसरे को अपना भाई-बहन समझते थे। मगर आज हर तरफ नफरत फैल गई है। लोगों में अपने पन का माहौल खत्म हो गया है। मैं समझता हूँ कि इनसानियत के लिए इससे ज्यादा बुरी कोई चीज नहीं कि लोग आपस में एक-दूसरे से नफरत करने लगें।
इसी के साथ मेरा अनुभव बताता है कि बँटवारा तरक्की की राह में भी रुकावट है। बँटवारा हमेशा intolerance के जज्बे के तहत होता है। इसलिए बँटवारे के बाद बात खत्म नहीं होती, बल्कि आपस का टकराव और लड़ाइयाँ शुरू हो जाती है। यही भारत और पाकिस्तान के बीच में हुआ है। दोनों में दुश्मनियाँ खड़ी हो गईं। दोनों के बीच में लड़ाई ठन गई। इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों अपने बजट का बहुत बड़ा हिस्सा लड़ाई पर खर्च करने लगे। यही वजह है कि दोनों मुल्क अभी 55 साल बाद भी विकसित देश न बन सके। हालाँकि इसी मुद्दत में कई देश विकसित देश बन गए, जैसे–जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर वगैरह।
हमने यह भी देखा है कि कुछ देश ऐसे हैं जहाँ बँटवारा नहीं हुआ, मगर कुछ दिनों के बाद उन्होंने बँटवारे की कड़वाहट चखी तो उनकी सोच बदली और वे फिर से आपस में मिलने की सोचने लगे। पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी आपस में मिलने की बातचीत चला रहे हैं। यह एक शुभ लक्षण है।
भारत में हमारे यहाँ जो बँटवारा हुआ उसकी कड़वाहट सब लोग चख चुके हैं। मैं समझता हूँ कि अब हमें तीन में से एक काम करना चाहिए। या तो ऐसा हो कि सन् 1947 से पहले देश के जो टुकड़े एक साथ मिलकर भारत देश कहे जाते थे वे सब फिर से मिलकर वैसा ही संयुक्त भारत देश बनाएँ।
और अगर ऐसा न हो सके तो फिर ऐसा होना चाहिए कि पूरे उपमहाद्वीप को एक Confederation की सूरत दे दी जाय। यानी अलग रहते हुए भी सब एक central system से जुड़ जाएँ, किसी तरह अमेरिका में 50 राज्य अलग रहकर भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
और अगर ऐसा न हो तो कम-से-कम यह तो जरूर होना चाहिए कि इस पूरे उपमहाद्वीप में वीजा व्यवस्था खत्म कर दी जाय, जिस तरह यूरोप और अरब के देशों में खत्म कर दी गई है। पूरे महाद्वीप में लोग आजादी के साथ आएँ–जाएँ, आपस में खूब व्यापार करें। एक जगह का नौजवान दूसरी जगह जाकर शिक्षा ले सके।
हम बँटवारे को सह नहीं सकते। हम बँटवारे को afford नहीं कर सकते। इसलिए हमें कोई-न-कोई रास्ता ऐसा निकालना है जिसमें पूरे उपमहाद्वीप में एक-दूसरे के बीच में सामान्य संबंध कायम हों। हमें चाहिए कि हम झगड़ों को खत्म करें। हम पीछे की तरफ न देखें। हम अतीत को भुलाएँ और भविष्य को सामने रखकर अपनी planning करें। इसी तरह हम अपने लिए विकसित देशों की सूची में उचित स्थान प्राप्त कर सकते हैं।
-मौलाना
वहीदुद्दीन
नई दिल्ली अध्यक्ष
दि इसलामिक सेंटर
नई दिल्ली अध्यक्ष
दि इसलामिक सेंटर
नई दिल्ली अध्यक्ष
11 अगस्त 2004
11 अगस्त 2004
अखंड भारत समारोह – 1999
द्विराष्ट्रवाद भारतवर्ष में किसी को स्वीकार्य नहीं
(दीनदयाल शोध संस्थान, 15 अगस्त, 1999 को आयोजित परिसंवाद का वृत्त)
डॉ. महेशचंद्र शर्मा
प्रति वर्ष हमलोग 15 अगस्त अर्थात् स्वतंत्रता-दिवस को परिचर्चा में एकत्र
होते हैं।
हमारे देश में एक ऐसी घटना हुई, जिसको भूलना और सुधारना-दोनों ही अभी तक संभव नहीं हुआ और वह है-द्विराष्ट्रवाद के आधार पर भारतवर्ष का विभाजन। इस वर्ष के परिसंवाद का जो विषय है, उसे मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ और उसके बाद हमारे विद्वान् वक्ता उस पर अपने विचार रखेंगे। अभी भी स्थितियाँ ऐसी नहीं बनी हैं कि सीमा पर शांति हो। एक प्रकार से छाया-युद्ध जारी है। करगिल के बहाने कुछ बातें विशेष रुप से रेखांकित हुई हैं। उनमें दो बातें हैं, जो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री श्री नवाज शरीफ ने कही हैं। पहली बात तो यह कि कश्मीर भारत-विभाजन का अधूरा अध्याय है। यानी भारत विभाजन पूरा अभी हुआ नहीं है, वह अधूरा है, इस अधूरे अध्याय को पूरा करना है। और उनका दूसरा वाक्य है-यदि भारत ने कश्मीर समस्या नहीं सुलझाई तो कई और करगिल होंगे। मैं समझता हूँ कि वाक्यों को समुचित प्रकार से भाष्य होना चाहिए।
कश्मीर-समस्या को लेकर हमारे देश में कई प्रकार की बातें बोली जाती हैं। कभी-कभी कहा जाता है कि कश्मीर तो भारत की धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक है और कश्मीर-समस्या को ठीक करने के लिए कोई बड़ा आर्थिक पैकेज देना चाहिए। यह भी कहा जाता है कि कोई पॉलिटिकल पैकेज हो, जैसे धारा 370 है। सन् 1953 के पहले की स्थितियाँ, जिनमें दो विधान, दो प्रधान, दो संविधान कश्मीर में थे, वो बहाल किए जाएँ। हमारे देश में तो थोड़े ही सही, पर ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं कि कश्मीर को देने से यदि शांति होती है तो दे दो, इसके लिए क्या झगड़ा करना है ? भाँति-भाँति की बाते हमारे यहाँ होती हैं। लेकिन जो बात पाकिस्तान की ओर से आई है, वह यह है कि भारत-विभाजन का अधूरा अध्याय पूरा तब होगा, जब कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बनेगा। हमलोग देखते हैं कि पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर श्रीमान अटल बिहारी बाजपेयी तक हमारे देश के सभी प्रधानमंत्री और सभी नेता एक बात कहते हैं कि पाकिस्तान का वजूद हमें स्वीकार है। हम मानते हैं पाकिस्तान नाम का देश बन चुका है। उसके अस्तित्व को स्वीकार करते हुए हम यह चाहते हैं कि पाकिस्तान के साथ हम लोग भाईचारे से रह सकें। पचास साल से यह बात कही जा रही है, लेकिन जिनके मन में पाकिस्तान की ग्रंथि है, उनको विश्वास नहीं है कि भारत वर्ष ने हमारे वजूद को स्वीकार कर लिया है शायद उनको विश्वास न होना बहुत गौरवाजिव नहीं, कयोंकि वे कहते हैं कि पाकिस्तान के अस्तित्व का मतलब सिंध, पख्तूनिसितान, बलुचिस्तान, पंजाब ये पाकिस्तान नहीं है। पाकिस्तान सिर्फ भूखण्ड का नाम नहीं है, वरन् पाकिस्तान तो द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत से उत्पन्न हुआ है और हिन्दुस्तान को यदि द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत स्वीकार्य नहीं है तो हम कैसे मानें कि पाकिस्तान का वजूद आपको स्वीकार्य है। द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत भारतवर्ष में किसी को स्वीकार्य नहीं है। और इसलिए जब भारतवर्ष के लोग कहते हैं कि हमें पाकिस्तान स्वीकार है, तब वे यह कहते हैं कि हुआ तो गलत, सिद्धांत भी ठीक नहीं है, पर जो हो गया, सो हो गया। अब इसे भूल जाओ।
एक धारा है भारत की, जो कहती है कि जो हो गया, सो हो गया; उसे भूल जाओ दूसरी धारा है पाकिस्तान में, जो कहती है कि अभी हुआ ही नहीं, अभी अधूरा है, इसे पूरा करो। भारतवर्ष के हम सांसद पाकिस्तान गए थे तो हम लोगों से उनका व्यवहार बहुत ही सौहार्दपूर्ण, बहुत ही सम्मानजनक, शालीन और अच्छा था, लेकिन हर भाषण, हर वक्तृता के बाद एक ही सवाल खड़ा होता था-यह सब ठीक है, पर कश्मीर के बारे में आप क्या सोचते हैं ? और हम लोगों ने जानबूझकर इस मुद्दे पर वहाँ बहस नहीं की। वे सोचते हैं कि यदि आपको पाकिस्तान का वजूद स्वीकार है, यदि आपको यह स्वीकार है कि पाकिस्तान द्विराष्ट्रवाद के आधार पर बना है, तो द्विराष्ट्रवाद के कारण ही तो आधा पंजाब, सिंध, ब्लूचिस्तान, पख्तूनिस्तान और पूर्वी बंगाल पाकिस्तान को मिला तो उसी तर्क से मुसलिम बाहुल कश्मीर घाटी पाकिस्तान को क्यों नहीं मिलनी चाहिए ?
एक टिकलिस मुद्दा है कानूनी। वह यह है कि वहाँ का राजा हिंदू था। हिंदू राजा ने भारत को ऑप्ट कर लिया और इसलिए आपको कश्मीर स्वीकार ही नहीं करना चाहिए था। यदि आप ईमानदार होते तो द्विराष्ट्रवाद के आधार पर जिस तरह से हमें पंजाब और सिंध मिला था, वैसे ही हमें कश्मीर घाटी मिलनी चाहिए थी, पर आप हमें स्वीकार ही नहीं करते। और यह जो अधूरा अध्याय है, इसी को पूरी करने के लिए, 1947 में कबाइलियों का हमला किया हम लोगों ने, उसी को प्राप्त करने के लिए 1965 और फिर 1971 में आक्रमण हुआ और उसी को प्राप्त करने के लिए अब कारगिल में आक्रमण हुआ।
परिस्थितियाँ ये बनीं कि कश्मीर तो मिला नहीं, बंगाल से भी हाथ धोने पड़े। चार-चार युद्धों में पराजित, अपने ही भीतर से विभाजित और अपने वजूद के बारे में असंतुष्ट कि मेरा वजूद स्वीकार्य है या नहीं। इस प्रकार की स्थिति में है पाकिस्तान। उससे कोई क्या और कैसे बात करें ? आंतरिक व्यवस्था कैसी है ? द्विराष्ट्रवाद के आधार पर जो पाकिस्तान बना, वह मुसलमानों का अपना वतन है–ऐसा कहा गया। और फिर जो मुसलमान यह सोचकर वहाँ गए, इस बात के शिकार हो गए कि वह भूमि, जो पाकिस्तान के नाम की है, वह तो इस्लाम के राजवाली होगी। वहाँ सुख-चैन से रहेंगे। यहाँ कहाँ हिंदुओं के बीच कुफ्र में पड़े रहेंगे। और वहाँ चले गए, जो शरणार्थी हैं, जिनको ‘मुहाजिर’ कहते हैं। सामान्यतः उत्तर प्रदेश और बिहार से गए हुए हैं ये मुहाजिर। वे आज पचास साल बाद भी अपने–आपको गैरवतनी पाते हैं। उन्हें वहाँ पाकिस्तान का कोई नहीं मिला। उन्होंने वहीँ सिंधी, पंजाबी, पख्तून और बलूच मिले। और उन सबने कहा–हम तुम्हें नहीं जानते। हम तुम्हें नहीं पहचानते। और वे गैरवतनी बने मुहाजिर आज माँग कर रहें हैं, जिन्होंने पचास साल पहले भारत के विभाजन की माँग की थी, वे आज पाकिस्तान में अपने लिए अलग मुहाजिरिस्तान चाहतें है; पश्चिमी सिंध का बँटवारा चाहते हैं।
सिंध की कहानी हम लोगों को मालूम है कि सन् 1946 में वहाँ चुनाव पाकिस्तान के नारे पर ही हुआ था। लेकिन मुसलिम लीग को, पाकिस्तानवादी मुसलिम लीग को उन चुनावों में केवल चालीस प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। जो 60 प्रतिशत वोट बचा, उनमें 30 प्रतिशत हिंदुओं का है, 30 प्रतिशत वोट मुसलमानों का है। उन 60 प्रतिशत लोगों ने मुसलिम लीग के खिलाफ अपना वोट दिया था। बँटवारे के कारण वोट बँट गए तो विजय मुसलिम लीग की हुई।
एक बार मलकानीजी कह रहे थे कि उस समय किसी को सूझता और कहता कि पाकिस्तान को लेकर सिंध में जनमत–संग्रह करवाया जाए। तो शायद जनमत-संग्रह में पाकिस्तान जीत नहीं पाता। पख्तूनिस्तान के अब्दुल गफ्फार खान ने काग्रेंस के लोगों से विभाजन माँगनेवालों से कहा था-‘आपने हमको भेड़ियों के मुँह में धकेल दिया।’ उन्होंने ने भी उस समय जनमत-संग्रह के दौरान उसका बहिष्कार किया था। सिंध और पख्तूनिस्तान में यदि वातावरण ऐसा होता और जनमत-संग्रह होता तो पाकिस्तान का इतिहास भिन्न प्रकार का होता।
अभी जब हम पाकिस्तान गए, तब मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि पहले जो इस बात का खुला इजहार करते हैं कि हम यह महसूस नहीं करते कि पाकिस्तान हमारा वतन है; यह तो पंजाबियों के प्रभुत्व का और सेना की संप्रभुता का देश है। अपना देश अलग हो ही गया। ऐसी अवस्था में हम केवल यह कहते रहे कि जो हो गया, वह बुरा हुआ वह इसे भूलो। पाकिस्तान पड़ोसी है, उसके साथ प्रेम से रहो। वे अपनी पीढ़ियों को ये पढ़ाते रहे कि अध्याय अधूरा है, पूरा करना है और हम अपनी पीढ़ियों को ये पढ़ाते रहे कि गलती हो गई, भूल हो गई, भूल जाओ। इतिहास कभी लौटाया नहीं जाता। जो हो गया, सो हो गया। जैसा है, वैसा स्वीकार करो।
इसलिए भारतवर्ष के भीतर तो जो पीढ़ियाँ बड़ी हो रही हैं, उनको ये कल्पना भी नहीं है, ये मालूम भी नहीं है कि भारत का नक्शा कौन-सा है। जो आजादी के बाद भारत का राजनीतिक नक्शा है, वही उनके सामने है। और इसलिए मुझे जरूर लगता है कि बातों को टकराने से, साइड ट्रैक करने से, समस्याओं का समाधान नहीं होता। हमको इन सब बातों पर ठीक से और संजीदगी से बात करनी होगी। यह लगभग असंभव है कि इस विभाजन का स्वरूप ऐसा ही रहेगा। भारत तथा पाकिस्तान अच्छे पड़ोसी की तरह रहेंगे। यह असंभव है, यह हो ही नहीं सकता। इस विभाजन के बारे में फिर से विचार करना चाहिए। सोचना चाहिए कि गलत हुआ तो क्यों हुआ ? किसके कारण हुआ ? और अब इतिहास के सभी पन्ने ठीक प्रकार से खुल गए हैं। किसी को कोई शक नहीं कि अंग्रेजों ने भारत की आंतरिक समस्याओं का एक साम्राज्यवादी उपयोग करके भारत का विभाजन किया। उस साम्राज्यवादी रणनीति के तहत भारतवर्ष का विभाजन हुआ।
अब्दुल गफ्फार खान के बेटे बली खान की किताब आई है-‘फैक्ट्स ऑर द फैक्ट्स’। उसकी समीक्षा लिखी है मलकानीजी ने। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद साफ जाहिर होता है कि वली खान ने एक-एक छोटी-छोटी घटना का वर्णन करते हुए यह कहा है कि किस तरह से मुसलिम समाज में पृथकतावाद को बढ़ावा दिया गया। एक-एक आदमी को छोटी-छोटी कीमत देकर खरीदा गया। उस घटना की कहानी कह तफसील वली खान अपनी किताब में देते है। अंग्रेज यह तय कर चुके थे कि भारतवर्ष को बाँटना हैं, भारतवर्ष को छोटा करना है और इसलिए जो आजादी एक साल बाद में आनी थी, उस आजादी को उन्होंने एक साल पहले प्रीबॉन्ड किया। और ये सब कुछ इतनी जल्दी-जल्दी हुआ कि किसी को सोचने का मौका नहीं मिला। कोई पुनर्विचार न कर ले और यहाँ जो मारा-काटी दंगे-फँसाद हुए। मैं समझता हूँ कि सिंधु में जो पलायन हुआ, यदि उसपर विचार-विमर्श से कुछ होता तो परिणाम दूसरा आता ! पर मारा–काटी में किसी को कुछ सोचने का समय ही नहीं था ! जल्दी में हुआ। महात्माजी कहते हुए घूम रहे थे कि विभाजन मेरी लाश पर होगा। पहले मेरी लाश बँटेगी, फिर यह देश बँटेगा। कांग्रेस ‘अखंड भारत’ को नारे बनाकर देश में घूम रही थी। ‘वंदे मातरम्’ का नारा गुंजार हो रहा था। कोई इसको मानता ही नहीं था, स्वीकार ही नहीं करता था कि पाकिस्तान बन भी सकता है। जब जून में घोषणा हुई और जून–जुलाई–अगस्त में सबकुछ हो गया तो।
इन पूरी बातों पर तफलीस से विचार होना चाहिए, ढंग से विचार होना चाहिए। भारतवर्ष में तथाकथित हिंदू–मुसलिम समस्या को ठीक से समझना चाहिए। हिमालय से कन्या कुमारी तक सारा भारत एक जन है, एक समाज है, एक देश है। उनके मजहब अलग-अलग हुए तो क्या हुआ। मजहबों के बदलने से राष्ट्रीयताएँ नहीं बदलती। यहाँ की नेशनैलिटी एक है, यहाँ का रक्त एक है। यहाँ के लोगों की सामाजिकता एक है। सांस्कृतिक पृष्ठभूमि एक है, लेकिन ऐतिहासिक कारणों से स्थितियाँ ऐसी बनीं कि मजहब के नाम पर अलग पहचान, मजहब के नाम पर अलग अस्तित्व की बात हमारे देश में बोली गई और बोली जा रही है, समाप्त नहीं हुई है। यह बोली अभी भी जारी है। और इसलिए वह अधूरे अध्याय का सपना, इस भारत भूखंड में अभी समाप्त हो गया है। ऐसा जो सोचते हैं, वो सचाई की दुनिया में नहीं रहते।
दीनदयाल शोध संस्थान प्रतिवर्ष इस विषय पर देश के सुधीजनों को, श्रेष्ठजनों को बुलाकर एक सांकेतिक, एक प्रतीकात्मक कार्यक्रम करता है, मुझे विश्वास है कि इस कार्यक्रम में से ऐसी भी धारा को हम अवश्य प्रवाहित कर सकेंगे, जिसके परिणामस्वरूप जो होना चाहिए, वह होगा। क्या होना चाहिए ? कैसे होना चाहिए ? क्या आज पाकिस्तान खत्म हो सकता है ? हिंदुस्तान-पाकिस्तान का जो राजनीतिक चित्र है, वह बदल सकता है ? तो सामान्यतः कहा जाता है कि यह नहीं बदल सकता। ठीक भी है। कोई चीज तत्काल और हठात् नहीं बदलती। बदलने की भी प्रक्रिया होती है, एक तरीका होता है, जरिया होता है। मैं समझता हूँ कि हमारे देश के दो राष्ट्रनायकों ने इस संदर्भ में हमें संकेत दिया है। पं.दीनदयाल उपाध्याय और डॉ. राम मनोहर लोहिया ने सन् 1964 में हमें दिशा–संकेत दिया और कहा कि भारत तथा पाकिस्तान का इस तरह बँटवारा इस भूखंड को कभी भी शांति से नहीं रहने देगा। इसलिए इस बँटवारे के स्वरूप को बदलना चाहिए। और इस बदलाव के लिए उन्होंने कहा–भारत-पाक महासंघ बनना चाहिए। दोनों पॉलिटिक आइडेंटिटीज अलग-अलग हैं। राजनीतिक इकाइयों के अलग होने से भारत बँटता नहीं। भारत में तो सैकड़ों राजनीतिक इकाइयाँ रहती आई हैं, पर देश कभी बँटा हुआ नहीं कहलाया। इन इकाइयों के रहते हुए भी हम एक महासंघ बना सकते हैं। जो हमारी एकात्मता के सूत्र हैं, वे बहुत गहरे हैं। दुनिया की ताकतों, राज्य की सीमाओं और शस्त्रों की ताकतों ने उसे तोड़ने की बहुत कोशिश की है। जरा आप पाकिस्तान जाइए, तब आप पाएँगे–भारत वहाँ जीवित है। वहाँ जब लोग पंजाबियत, सिंधियत, पख्तूनियत, ब्लूचियत और बंगालियत जीते हैं, तब वो भारतीयता जीते हैं।
इस जीवन को पहचानना और पहचान करके एक पुकार की इस उग्र नारेबाजी से मुक्ति पाकर विवेक से कुछ सोचना है। कैसा करें, क्या करें कि समस्या का सही निदान हो ? यह निर्धारित करना है। अभी पचास साल में जो हमने यही किया है कि हम कुछ न करें, हम सचाइयों की अनदेखी करें, हम भूलने की कोशिश करें। जब नहीं भूलेंगे, तब एक नहीं कई करगिल होंगे। एक नहीं, अनेक युद्ध होंगे। कितना भी आप कोशिश करेंगे, तो भी आप नहीं भूल पाएँगे। जो गलती हुई है, जो भूल हुई है, उसका सुधार करना है।
हमारे देश में एक ऐसी घटना हुई, जिसको भूलना और सुधारना-दोनों ही अभी तक संभव नहीं हुआ और वह है-द्विराष्ट्रवाद के आधार पर भारतवर्ष का विभाजन। इस वर्ष के परिसंवाद का जो विषय है, उसे मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ और उसके बाद हमारे विद्वान् वक्ता उस पर अपने विचार रखेंगे। अभी भी स्थितियाँ ऐसी नहीं बनी हैं कि सीमा पर शांति हो। एक प्रकार से छाया-युद्ध जारी है। करगिल के बहाने कुछ बातें विशेष रुप से रेखांकित हुई हैं। उनमें दो बातें हैं, जो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री श्री नवाज शरीफ ने कही हैं। पहली बात तो यह कि कश्मीर भारत-विभाजन का अधूरा अध्याय है। यानी भारत विभाजन पूरा अभी हुआ नहीं है, वह अधूरा है, इस अधूरे अध्याय को पूरा करना है। और उनका दूसरा वाक्य है-यदि भारत ने कश्मीर समस्या नहीं सुलझाई तो कई और करगिल होंगे। मैं समझता हूँ कि वाक्यों को समुचित प्रकार से भाष्य होना चाहिए।
कश्मीर-समस्या को लेकर हमारे देश में कई प्रकार की बातें बोली जाती हैं। कभी-कभी कहा जाता है कि कश्मीर तो भारत की धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक है और कश्मीर-समस्या को ठीक करने के लिए कोई बड़ा आर्थिक पैकेज देना चाहिए। यह भी कहा जाता है कि कोई पॉलिटिकल पैकेज हो, जैसे धारा 370 है। सन् 1953 के पहले की स्थितियाँ, जिनमें दो विधान, दो प्रधान, दो संविधान कश्मीर में थे, वो बहाल किए जाएँ। हमारे देश में तो थोड़े ही सही, पर ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं कि कश्मीर को देने से यदि शांति होती है तो दे दो, इसके लिए क्या झगड़ा करना है ? भाँति-भाँति की बाते हमारे यहाँ होती हैं। लेकिन जो बात पाकिस्तान की ओर से आई है, वह यह है कि भारत-विभाजन का अधूरा अध्याय पूरा तब होगा, जब कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बनेगा। हमलोग देखते हैं कि पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर श्रीमान अटल बिहारी बाजपेयी तक हमारे देश के सभी प्रधानमंत्री और सभी नेता एक बात कहते हैं कि पाकिस्तान का वजूद हमें स्वीकार है। हम मानते हैं पाकिस्तान नाम का देश बन चुका है। उसके अस्तित्व को स्वीकार करते हुए हम यह चाहते हैं कि पाकिस्तान के साथ हम लोग भाईचारे से रह सकें। पचास साल से यह बात कही जा रही है, लेकिन जिनके मन में पाकिस्तान की ग्रंथि है, उनको विश्वास नहीं है कि भारत वर्ष ने हमारे वजूद को स्वीकार कर लिया है शायद उनको विश्वास न होना बहुत गौरवाजिव नहीं, कयोंकि वे कहते हैं कि पाकिस्तान के अस्तित्व का मतलब सिंध, पख्तूनिसितान, बलुचिस्तान, पंजाब ये पाकिस्तान नहीं है। पाकिस्तान सिर्फ भूखण्ड का नाम नहीं है, वरन् पाकिस्तान तो द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत से उत्पन्न हुआ है और हिन्दुस्तान को यदि द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत स्वीकार्य नहीं है तो हम कैसे मानें कि पाकिस्तान का वजूद आपको स्वीकार्य है। द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत भारतवर्ष में किसी को स्वीकार्य नहीं है। और इसलिए जब भारतवर्ष के लोग कहते हैं कि हमें पाकिस्तान स्वीकार है, तब वे यह कहते हैं कि हुआ तो गलत, सिद्धांत भी ठीक नहीं है, पर जो हो गया, सो हो गया। अब इसे भूल जाओ।
एक धारा है भारत की, जो कहती है कि जो हो गया, सो हो गया; उसे भूल जाओ दूसरी धारा है पाकिस्तान में, जो कहती है कि अभी हुआ ही नहीं, अभी अधूरा है, इसे पूरा करो। भारतवर्ष के हम सांसद पाकिस्तान गए थे तो हम लोगों से उनका व्यवहार बहुत ही सौहार्दपूर्ण, बहुत ही सम्मानजनक, शालीन और अच्छा था, लेकिन हर भाषण, हर वक्तृता के बाद एक ही सवाल खड़ा होता था-यह सब ठीक है, पर कश्मीर के बारे में आप क्या सोचते हैं ? और हम लोगों ने जानबूझकर इस मुद्दे पर वहाँ बहस नहीं की। वे सोचते हैं कि यदि आपको पाकिस्तान का वजूद स्वीकार है, यदि आपको यह स्वीकार है कि पाकिस्तान द्विराष्ट्रवाद के आधार पर बना है, तो द्विराष्ट्रवाद के कारण ही तो आधा पंजाब, सिंध, ब्लूचिस्तान, पख्तूनिस्तान और पूर्वी बंगाल पाकिस्तान को मिला तो उसी तर्क से मुसलिम बाहुल कश्मीर घाटी पाकिस्तान को क्यों नहीं मिलनी चाहिए ?
एक टिकलिस मुद्दा है कानूनी। वह यह है कि वहाँ का राजा हिंदू था। हिंदू राजा ने भारत को ऑप्ट कर लिया और इसलिए आपको कश्मीर स्वीकार ही नहीं करना चाहिए था। यदि आप ईमानदार होते तो द्विराष्ट्रवाद के आधार पर जिस तरह से हमें पंजाब और सिंध मिला था, वैसे ही हमें कश्मीर घाटी मिलनी चाहिए थी, पर आप हमें स्वीकार ही नहीं करते। और यह जो अधूरा अध्याय है, इसी को पूरी करने के लिए, 1947 में कबाइलियों का हमला किया हम लोगों ने, उसी को प्राप्त करने के लिए 1965 और फिर 1971 में आक्रमण हुआ और उसी को प्राप्त करने के लिए अब कारगिल में आक्रमण हुआ।
परिस्थितियाँ ये बनीं कि कश्मीर तो मिला नहीं, बंगाल से भी हाथ धोने पड़े। चार-चार युद्धों में पराजित, अपने ही भीतर से विभाजित और अपने वजूद के बारे में असंतुष्ट कि मेरा वजूद स्वीकार्य है या नहीं। इस प्रकार की स्थिति में है पाकिस्तान। उससे कोई क्या और कैसे बात करें ? आंतरिक व्यवस्था कैसी है ? द्विराष्ट्रवाद के आधार पर जो पाकिस्तान बना, वह मुसलमानों का अपना वतन है–ऐसा कहा गया। और फिर जो मुसलमान यह सोचकर वहाँ गए, इस बात के शिकार हो गए कि वह भूमि, जो पाकिस्तान के नाम की है, वह तो इस्लाम के राजवाली होगी। वहाँ सुख-चैन से रहेंगे। यहाँ कहाँ हिंदुओं के बीच कुफ्र में पड़े रहेंगे। और वहाँ चले गए, जो शरणार्थी हैं, जिनको ‘मुहाजिर’ कहते हैं। सामान्यतः उत्तर प्रदेश और बिहार से गए हुए हैं ये मुहाजिर। वे आज पचास साल बाद भी अपने–आपको गैरवतनी पाते हैं। उन्हें वहाँ पाकिस्तान का कोई नहीं मिला। उन्होंने वहीँ सिंधी, पंजाबी, पख्तून और बलूच मिले। और उन सबने कहा–हम तुम्हें नहीं जानते। हम तुम्हें नहीं पहचानते। और वे गैरवतनी बने मुहाजिर आज माँग कर रहें हैं, जिन्होंने पचास साल पहले भारत के विभाजन की माँग की थी, वे आज पाकिस्तान में अपने लिए अलग मुहाजिरिस्तान चाहतें है; पश्चिमी सिंध का बँटवारा चाहते हैं।
सिंध की कहानी हम लोगों को मालूम है कि सन् 1946 में वहाँ चुनाव पाकिस्तान के नारे पर ही हुआ था। लेकिन मुसलिम लीग को, पाकिस्तानवादी मुसलिम लीग को उन चुनावों में केवल चालीस प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। जो 60 प्रतिशत वोट बचा, उनमें 30 प्रतिशत हिंदुओं का है, 30 प्रतिशत वोट मुसलमानों का है। उन 60 प्रतिशत लोगों ने मुसलिम लीग के खिलाफ अपना वोट दिया था। बँटवारे के कारण वोट बँट गए तो विजय मुसलिम लीग की हुई।
एक बार मलकानीजी कह रहे थे कि उस समय किसी को सूझता और कहता कि पाकिस्तान को लेकर सिंध में जनमत–संग्रह करवाया जाए। तो शायद जनमत-संग्रह में पाकिस्तान जीत नहीं पाता। पख्तूनिस्तान के अब्दुल गफ्फार खान ने काग्रेंस के लोगों से विभाजन माँगनेवालों से कहा था-‘आपने हमको भेड़ियों के मुँह में धकेल दिया।’ उन्होंने ने भी उस समय जनमत-संग्रह के दौरान उसका बहिष्कार किया था। सिंध और पख्तूनिस्तान में यदि वातावरण ऐसा होता और जनमत-संग्रह होता तो पाकिस्तान का इतिहास भिन्न प्रकार का होता।
अभी जब हम पाकिस्तान गए, तब मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि पहले जो इस बात का खुला इजहार करते हैं कि हम यह महसूस नहीं करते कि पाकिस्तान हमारा वतन है; यह तो पंजाबियों के प्रभुत्व का और सेना की संप्रभुता का देश है। अपना देश अलग हो ही गया। ऐसी अवस्था में हम केवल यह कहते रहे कि जो हो गया, वह बुरा हुआ वह इसे भूलो। पाकिस्तान पड़ोसी है, उसके साथ प्रेम से रहो। वे अपनी पीढ़ियों को ये पढ़ाते रहे कि अध्याय अधूरा है, पूरा करना है और हम अपनी पीढ़ियों को ये पढ़ाते रहे कि गलती हो गई, भूल हो गई, भूल जाओ। इतिहास कभी लौटाया नहीं जाता। जो हो गया, सो हो गया। जैसा है, वैसा स्वीकार करो।
इसलिए भारतवर्ष के भीतर तो जो पीढ़ियाँ बड़ी हो रही हैं, उनको ये कल्पना भी नहीं है, ये मालूम भी नहीं है कि भारत का नक्शा कौन-सा है। जो आजादी के बाद भारत का राजनीतिक नक्शा है, वही उनके सामने है। और इसलिए मुझे जरूर लगता है कि बातों को टकराने से, साइड ट्रैक करने से, समस्याओं का समाधान नहीं होता। हमको इन सब बातों पर ठीक से और संजीदगी से बात करनी होगी। यह लगभग असंभव है कि इस विभाजन का स्वरूप ऐसा ही रहेगा। भारत तथा पाकिस्तान अच्छे पड़ोसी की तरह रहेंगे। यह असंभव है, यह हो ही नहीं सकता। इस विभाजन के बारे में फिर से विचार करना चाहिए। सोचना चाहिए कि गलत हुआ तो क्यों हुआ ? किसके कारण हुआ ? और अब इतिहास के सभी पन्ने ठीक प्रकार से खुल गए हैं। किसी को कोई शक नहीं कि अंग्रेजों ने भारत की आंतरिक समस्याओं का एक साम्राज्यवादी उपयोग करके भारत का विभाजन किया। उस साम्राज्यवादी रणनीति के तहत भारतवर्ष का विभाजन हुआ।
अब्दुल गफ्फार खान के बेटे बली खान की किताब आई है-‘फैक्ट्स ऑर द फैक्ट्स’। उसकी समीक्षा लिखी है मलकानीजी ने। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद साफ जाहिर होता है कि वली खान ने एक-एक छोटी-छोटी घटना का वर्णन करते हुए यह कहा है कि किस तरह से मुसलिम समाज में पृथकतावाद को बढ़ावा दिया गया। एक-एक आदमी को छोटी-छोटी कीमत देकर खरीदा गया। उस घटना की कहानी कह तफसील वली खान अपनी किताब में देते है। अंग्रेज यह तय कर चुके थे कि भारतवर्ष को बाँटना हैं, भारतवर्ष को छोटा करना है और इसलिए जो आजादी एक साल बाद में आनी थी, उस आजादी को उन्होंने एक साल पहले प्रीबॉन्ड किया। और ये सब कुछ इतनी जल्दी-जल्दी हुआ कि किसी को सोचने का मौका नहीं मिला। कोई पुनर्विचार न कर ले और यहाँ जो मारा-काटी दंगे-फँसाद हुए। मैं समझता हूँ कि सिंधु में जो पलायन हुआ, यदि उसपर विचार-विमर्श से कुछ होता तो परिणाम दूसरा आता ! पर मारा–काटी में किसी को कुछ सोचने का समय ही नहीं था ! जल्दी में हुआ। महात्माजी कहते हुए घूम रहे थे कि विभाजन मेरी लाश पर होगा। पहले मेरी लाश बँटेगी, फिर यह देश बँटेगा। कांग्रेस ‘अखंड भारत’ को नारे बनाकर देश में घूम रही थी। ‘वंदे मातरम्’ का नारा गुंजार हो रहा था। कोई इसको मानता ही नहीं था, स्वीकार ही नहीं करता था कि पाकिस्तान बन भी सकता है। जब जून में घोषणा हुई और जून–जुलाई–अगस्त में सबकुछ हो गया तो।
इन पूरी बातों पर तफलीस से विचार होना चाहिए, ढंग से विचार होना चाहिए। भारतवर्ष में तथाकथित हिंदू–मुसलिम समस्या को ठीक से समझना चाहिए। हिमालय से कन्या कुमारी तक सारा भारत एक जन है, एक समाज है, एक देश है। उनके मजहब अलग-अलग हुए तो क्या हुआ। मजहबों के बदलने से राष्ट्रीयताएँ नहीं बदलती। यहाँ की नेशनैलिटी एक है, यहाँ का रक्त एक है। यहाँ के लोगों की सामाजिकता एक है। सांस्कृतिक पृष्ठभूमि एक है, लेकिन ऐतिहासिक कारणों से स्थितियाँ ऐसी बनीं कि मजहब के नाम पर अलग पहचान, मजहब के नाम पर अलग अस्तित्व की बात हमारे देश में बोली गई और बोली जा रही है, समाप्त नहीं हुई है। यह बोली अभी भी जारी है। और इसलिए वह अधूरे अध्याय का सपना, इस भारत भूखंड में अभी समाप्त हो गया है। ऐसा जो सोचते हैं, वो सचाई की दुनिया में नहीं रहते।
दीनदयाल शोध संस्थान प्रतिवर्ष इस विषय पर देश के सुधीजनों को, श्रेष्ठजनों को बुलाकर एक सांकेतिक, एक प्रतीकात्मक कार्यक्रम करता है, मुझे विश्वास है कि इस कार्यक्रम में से ऐसी भी धारा को हम अवश्य प्रवाहित कर सकेंगे, जिसके परिणामस्वरूप जो होना चाहिए, वह होगा। क्या होना चाहिए ? कैसे होना चाहिए ? क्या आज पाकिस्तान खत्म हो सकता है ? हिंदुस्तान-पाकिस्तान का जो राजनीतिक चित्र है, वह बदल सकता है ? तो सामान्यतः कहा जाता है कि यह नहीं बदल सकता। ठीक भी है। कोई चीज तत्काल और हठात् नहीं बदलती। बदलने की भी प्रक्रिया होती है, एक तरीका होता है, जरिया होता है। मैं समझता हूँ कि हमारे देश के दो राष्ट्रनायकों ने इस संदर्भ में हमें संकेत दिया है। पं.दीनदयाल उपाध्याय और डॉ. राम मनोहर लोहिया ने सन् 1964 में हमें दिशा–संकेत दिया और कहा कि भारत तथा पाकिस्तान का इस तरह बँटवारा इस भूखंड को कभी भी शांति से नहीं रहने देगा। इसलिए इस बँटवारे के स्वरूप को बदलना चाहिए। और इस बदलाव के लिए उन्होंने कहा–भारत-पाक महासंघ बनना चाहिए। दोनों पॉलिटिक आइडेंटिटीज अलग-अलग हैं। राजनीतिक इकाइयों के अलग होने से भारत बँटता नहीं। भारत में तो सैकड़ों राजनीतिक इकाइयाँ रहती आई हैं, पर देश कभी बँटा हुआ नहीं कहलाया। इन इकाइयों के रहते हुए भी हम एक महासंघ बना सकते हैं। जो हमारी एकात्मता के सूत्र हैं, वे बहुत गहरे हैं। दुनिया की ताकतों, राज्य की सीमाओं और शस्त्रों की ताकतों ने उसे तोड़ने की बहुत कोशिश की है। जरा आप पाकिस्तान जाइए, तब आप पाएँगे–भारत वहाँ जीवित है। वहाँ जब लोग पंजाबियत, सिंधियत, पख्तूनियत, ब्लूचियत और बंगालियत जीते हैं, तब वो भारतीयता जीते हैं।
इस जीवन को पहचानना और पहचान करके एक पुकार की इस उग्र नारेबाजी से मुक्ति पाकर विवेक से कुछ सोचना है। कैसा करें, क्या करें कि समस्या का सही निदान हो ? यह निर्धारित करना है। अभी पचास साल में जो हमने यही किया है कि हम कुछ न करें, हम सचाइयों की अनदेखी करें, हम भूलने की कोशिश करें। जब नहीं भूलेंगे, तब एक नहीं कई करगिल होंगे। एक नहीं, अनेक युद्ध होंगे। कितना भी आप कोशिश करेंगे, तो भी आप नहीं भूल पाएँगे। जो गलती हुई है, जो भूल हुई है, उसका सुधार करना है।
मौलाना जमील इलियासी
यदि विश्व-इतिहास देखा जाए तो भारत-पाक विभाजन आपने-आपमें सबसे भिन्न था,
क्योंकि इस प्रकार की तकसलीम पहले न कभी हुई और न आगे कभी होने की कोई
संभावना है। मगर यह हुआ बहुत बुरा। भारतीय महाद्वीप यदि भारत, पाकिस्तान व
बाँगलादेश में परिवर्तित न होता तो आज इसके सामने अफ्रीका, फ्रांस,
जर्मनी, इंग्लिस्तान आदि जैसे देश पानी भरते।
विभाजन एक बड़ी ही दुखद घटना थी। इसमें न केवल एक शरीर के दो टुकड़े हुए, अपितु लाखों लोगों की जान व माल की क्षति हुई। इससे भी अधिक त्रासदी यह हुई कि एक ही माँ के दो बेटों के दिलों में नफरत का गुब्बारा भर गया। हिंदू और मुसलमान, जो एक दुल्हन की दो खूबसूरत आँखें थीं, एक दूसरे को खा जाने की नज़र से देखने लगीं। सन् 1947 से पूर्व ‘सेक्युलर’ शब्द कभी सुनने में ही नहीं आया, मगर आज इस शब्द का चीरहरण कर बहुत-सी सियासी जमातों ने अपनी दुकीनें चमकाई हैं।
भारत के टुकड़े कभी न होते, यदि कुछ नेता अपनी हठ पर अड़े रहते। भारतीय कांग्रेसी नेताओं की निजी महत्त्वाकांक्षाओं को देखते हुए अंग्रेजों ने उसका पूर्ण लाभ उठाया और बंदरबाँट वाली नीति अपनाई। स्वतंत्रता-संग्राम जब अपने चरम बिंदु पर पहुँचा तो बदकिस्मती यह रही कि इसके अग्रिम नेता सरदार वल्लभ भाई पटेल और मौलाना आजाद नहीं पं. नेहरू और मुहम्मद अली जिन्ना बन गए। दोनों ही नेता नए भारत की स्थापना से अधिक इस बात में रुचि रखते थे कि उन्हें
सबसे ऊँची कुरसी मिले। उधर जिन्ना नवजात देश के कायदे-ए-आजम बनना चाहते थे। इधर पं. नेहरू भी सबसे महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण करना चाहते थे। कहने को तो पं. नेहरू और उनकी कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की नीति में विश्वास रखते थे, मगर सचाई कुछ और ही थी। जिन्ना को यदि डिप्टी प्रधानमंत्री का पद दे दिया जाता तो शायद यह विभाजन रुक सकता था। जिन्ना और नेहरु बराबर के विद्वान तथा योग्य पुरुष थे और दोनों की ही नाक बड़ी ऊँची थी। झुकना कोई सहन नहीं कर सकता था। यह बात भी पूर्ण रूप से समझ में आ चुकी थी कि बड़ी कुरसी मुसलिम संप्रदाय के किसी नेता को नहीं मिलेगी। बस, इसी बात पर जिन्ना तुनक गए और तुरंत मुसलिम लीग विचारधारा को अपना लिया। इधर पं. नेहरू का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा हुआ तो उधर नफरत की नकली दीवारें खड़ी करके जिन्ना पाकिस्तान के ‘कायदे-ए-आजम’ बन गए।
बकौल मौलाना आजाद, यह आजादी ऐसी थी, जिसमें सांप्रदायिकता की जंजीरों की जकड़नें थीं। ऐसी आजादी गांधीजी और मौलाना आजाद नहीं चाहते थे। सरदार पटेल की आँखों में यदि ऐसी जीर्ण-क्षीण आजादी के प्रति आँसू थे तो मौलाना आजाद जार-ओ-कतार रो रहे थे। विभाजन को अंत में रोकने के लिए गांधीजी ने स्वतंत्रता-सेनानी वीरांगना अरुणा आसफ अली के समक्ष पंडितजी और जिन्ना से कहा कि यदि विभाजन होगा तो उनकी लाश पर चलकर होगा। मगर दोनों नेताओं की महत्त्वाकांक्षाएँ इस भाव की अवहेलना करते हुए विभाजन के पक्ष में गईं।
विभाजन के विरुद्ध एक बार मौलाना आजाद ने रामगढ़ में 21 जुलाई, 1946 को कहा था कि तलवार की धार से पानी के धारों को दो भागों में नहीं बाँटा जा सकता। इसके अतिरिक्त विभाजन का भौगोलिक रूप बड़ा ही क्षत-विक्षत रहा, क्योंकि कश्मीर और तब के पूर्वी पाकिस्तान में नफरत और जंग के बीज बो दिए गए। लॉर्ड माउंटबेटन व उनकी टीम द्वारा इस प्रकार के विभाजन से यह भी प्रमाणित होता है कि अंग्रेंजों ने इस महाद्वीप की बरबादी के लिए अपनी दूरदर्शिता का प्रयोग किया, न किसी अच्छाई के लिए।
यदि कांग्रेसी नेता स्वयं दूरदर्शिता से कार्य करते तो विभाजन होता ही नहीं और न ही 1947 के उपरांत इतने सांप्रदायिक दंगे होते। हिंदुओं और मुसलमानों के मध्य वह विभेदी दीवार खड़ी नहीं होती, जो हम समय-समय पर कभी तो बाबरी मसजिद के प्रकरण के रूप में, तो कभी वंदेमातरम् के रूप में तो कभी शाहबानों केस या कारगिल लड़ाई में देखते हैं।
मगर अब समय है कि दोनों देश विभाजन की कड़वाहट को भुलाकर अच्छे मित्रों की भाँति रहे, जिसकी मिसाल भारतीय प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर बस-यात्रा में दी। आज भारतीय मुसलमान, हिंदू, सिख, ईसाई और पारसी होने के नाते तो हमें गर्व है कि बड़ा भाई होते हुए भी हमने आगे बढ़कर छोटे भाई को सारे द्वेष व रंजिश भुलाकर गले लगाया। हमारे सीने में आज भी वही प्यार है, जिसके लिए ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा’ है।
विभाजन एक बड़ी ही दुखद घटना थी। इसमें न केवल एक शरीर के दो टुकड़े हुए, अपितु लाखों लोगों की जान व माल की क्षति हुई। इससे भी अधिक त्रासदी यह हुई कि एक ही माँ के दो बेटों के दिलों में नफरत का गुब्बारा भर गया। हिंदू और मुसलमान, जो एक दुल्हन की दो खूबसूरत आँखें थीं, एक दूसरे को खा जाने की नज़र से देखने लगीं। सन् 1947 से पूर्व ‘सेक्युलर’ शब्द कभी सुनने में ही नहीं आया, मगर आज इस शब्द का चीरहरण कर बहुत-सी सियासी जमातों ने अपनी दुकीनें चमकाई हैं।
भारत के टुकड़े कभी न होते, यदि कुछ नेता अपनी हठ पर अड़े रहते। भारतीय कांग्रेसी नेताओं की निजी महत्त्वाकांक्षाओं को देखते हुए अंग्रेजों ने उसका पूर्ण लाभ उठाया और बंदरबाँट वाली नीति अपनाई। स्वतंत्रता-संग्राम जब अपने चरम बिंदु पर पहुँचा तो बदकिस्मती यह रही कि इसके अग्रिम नेता सरदार वल्लभ भाई पटेल और मौलाना आजाद नहीं पं. नेहरू और मुहम्मद अली जिन्ना बन गए। दोनों ही नेता नए भारत की स्थापना से अधिक इस बात में रुचि रखते थे कि उन्हें
सबसे ऊँची कुरसी मिले। उधर जिन्ना नवजात देश के कायदे-ए-आजम बनना चाहते थे। इधर पं. नेहरू भी सबसे महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण करना चाहते थे। कहने को तो पं. नेहरू और उनकी कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की नीति में विश्वास रखते थे, मगर सचाई कुछ और ही थी। जिन्ना को यदि डिप्टी प्रधानमंत्री का पद दे दिया जाता तो शायद यह विभाजन रुक सकता था। जिन्ना और नेहरु बराबर के विद्वान तथा योग्य पुरुष थे और दोनों की ही नाक बड़ी ऊँची थी। झुकना कोई सहन नहीं कर सकता था। यह बात भी पूर्ण रूप से समझ में आ चुकी थी कि बड़ी कुरसी मुसलिम संप्रदाय के किसी नेता को नहीं मिलेगी। बस, इसी बात पर जिन्ना तुनक गए और तुरंत मुसलिम लीग विचारधारा को अपना लिया। इधर पं. नेहरू का प्रधानमंत्री बनने का सपना पूरा हुआ तो उधर नफरत की नकली दीवारें खड़ी करके जिन्ना पाकिस्तान के ‘कायदे-ए-आजम’ बन गए।
बकौल मौलाना आजाद, यह आजादी ऐसी थी, जिसमें सांप्रदायिकता की जंजीरों की जकड़नें थीं। ऐसी आजादी गांधीजी और मौलाना आजाद नहीं चाहते थे। सरदार पटेल की आँखों में यदि ऐसी जीर्ण-क्षीण आजादी के प्रति आँसू थे तो मौलाना आजाद जार-ओ-कतार रो रहे थे। विभाजन को अंत में रोकने के लिए गांधीजी ने स्वतंत्रता-सेनानी वीरांगना अरुणा आसफ अली के समक्ष पंडितजी और जिन्ना से कहा कि यदि विभाजन होगा तो उनकी लाश पर चलकर होगा। मगर दोनों नेताओं की महत्त्वाकांक्षाएँ इस भाव की अवहेलना करते हुए विभाजन के पक्ष में गईं।
विभाजन के विरुद्ध एक बार मौलाना आजाद ने रामगढ़ में 21 जुलाई, 1946 को कहा था कि तलवार की धार से पानी के धारों को दो भागों में नहीं बाँटा जा सकता। इसके अतिरिक्त विभाजन का भौगोलिक रूप बड़ा ही क्षत-विक्षत रहा, क्योंकि कश्मीर और तब के पूर्वी पाकिस्तान में नफरत और जंग के बीज बो दिए गए। लॉर्ड माउंटबेटन व उनकी टीम द्वारा इस प्रकार के विभाजन से यह भी प्रमाणित होता है कि अंग्रेंजों ने इस महाद्वीप की बरबादी के लिए अपनी दूरदर्शिता का प्रयोग किया, न किसी अच्छाई के लिए।
यदि कांग्रेसी नेता स्वयं दूरदर्शिता से कार्य करते तो विभाजन होता ही नहीं और न ही 1947 के उपरांत इतने सांप्रदायिक दंगे होते। हिंदुओं और मुसलमानों के मध्य वह विभेदी दीवार खड़ी नहीं होती, जो हम समय-समय पर कभी तो बाबरी मसजिद के प्रकरण के रूप में, तो कभी वंदेमातरम् के रूप में तो कभी शाहबानों केस या कारगिल लड़ाई में देखते हैं।
मगर अब समय है कि दोनों देश विभाजन की कड़वाहट को भुलाकर अच्छे मित्रों की भाँति रहे, जिसकी मिसाल भारतीय प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर बस-यात्रा में दी। आज भारतीय मुसलमान, हिंदू, सिख, ईसाई और पारसी होने के नाते तो हमें गर्व है कि बड़ा भाई होते हुए भी हमने आगे बढ़कर छोटे भाई को सारे द्वेष व रंजिश भुलाकर गले लगाया। हमारे सीने में आज भी वही प्यार है, जिसके लिए ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा’ है।
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लोगों की राय
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